Wednesday, September 11, 2013

पहली और शायद आखिरी मुलाकात!


 जून की उस रात में तुमसे मेरी वह पहली मुलाकात थी और शायद आखिरी भी! मैं रोज की तरह ऑफिस  से घर लौट रहा था। सच कहूं तो पहली बार जब तुमने मुझे टोका था तो थोड़ा संकोच हुआ था, लेकिन उस 20 मिनट ने तुम और तुम्हारी बिरादरी से मेरे सारे संकोच दूर कर दिए। मैं आज भी तुम्हारे बारे में सोचता हूं तो पहले पहल यही ख्याल आता है कि तुम्हारा असली नाम क्या होगा। मेरे कई बार पूछने के बावजूद तुमने बताया भी नहीं था। तुमने मुस्कुरा कर बस इतना कहा था, 'कुछ भी कह लो रे, हम जैसों के नाम तो कपड़ों के रंग से साथ बदलते है।' वैसे मेरी इच्छा थी कि तुम्हे 'दुर्गा' नाम दूं, क्योंकि वह शक्ति का प्रतीक है।

मैंने पहले भी तुम्हें वहां देखा था। हां, वह तुम नहीं थी, लेकिन वह तुम ही थी। मेरी नजर में तुम एक प्रतीक हो उस समाज कि जिससे हम असामाजिक चिढते हैं। मुझे तब उस तथाकथित बुद्धिजीवी टाइप दिखने वाले वृद्ध की अज्ञानता पर तरस आया था जब उसने तुम्हें तिरस्कार भरी नजरों से देखा और मुझसे कहा कि इन ’हिजड़ों’ से दूर रहो। तुमने अपने चिर-परिचित अंदाज में उसे देखकर बस ताली बजा दी थी।

तुमने बताया था कि तुम रोज दिन में स्नान कर एक घंटे पूजा करती हो। इसलिए नहीं कि तुम्हारी ईश्वर में आस्था है बल्कि इसलिए कि अगले जन्म में तुम्हें फिर से इस जीवन की तरह सजा न मिले। मुझे इस बात का दुख हुआ था कि तुम यह मान बैठी हो कि तुमने पिछले जन्म में कुछ पाप किए थे, इसलिए ईश्वर ने तुम्हें ऐसा बनाया। मैंने इस पर तुम्हें टोका भी था, लेकिन तुम्हारे लिए मेरे पास तर्क नहीं थे। सच कहूं तो मैं यह सोचने मात्र से सिहर जाता हूं कि आठ साल की उम्र में मुझे मेरे समाज से लेकर मेरे अपने तक स्वीकारने से इन्कार कर दें। मेरे बेहतर कल के ख्वाब 300 रुपये की मामूली रकम पर अंधेरी चिमनी में झोक दिए जाए और 13 साल की उम्र से मेरा मन, मेरा शरीर और मेरी आत्मा रोज कई मर्तबा वासना के भार तले कुचली जाए। यह सब भी इसलिए कि मेरे साथ उसने एक भद्दा मजाक किया, जो खुद को भगवान कहता है।

तुम्हारे जिस बेबाक बर्ताव से लोग घृणा करते हैं, मुझे उस रात वही एक मात्र व्यवहारिक बर्ताव लग रहा था। तुमने जिस तरह पुलिस वाले के टोकने पर उसे चिढाने के लिए अपनी स्कर्ट उपर की थी और तुम्हारी संगी ने उसपर ताली ठोकी थी। या फिर उस वृद्ध से तुम्हारे बर्ताव पर ही मुझे हंसी नहीं आई थी। मैं यही सोच रहा था कि तुम ठीक ही कर रही हो। भला समाज ने तुम्हें ऐसा क्या दिया है कि तुम उसकी संस्कृति को पूजो। तुम्हारा वह सवाल भी मुझे चुप कर देने वाला ही था कि क्या रोजी-रोटी के लिए इस तथाकथित सभ्य समाज का कोई भी कोरपोरेट संस्थान तुम्हें अपने यहां काम देगा? कागजों और वक्तव्यों में भले ही ऐसा संभव भी हो, लेकिन व्यवहारिक तौर पर क्या कोई तुम्हें अपनी बराबरी में कुर्सी पर बैठकर काम करने देगा? मैं तुम्हारी बात को काटना चाहता था, लेकिन तुम्हारे तर्क मेरे तर्कों से कहीं ज्यादा व्यवहारिक जान पड़ रहे थे।

मैं आज भी कई बार उस लाल गाड़ी को कोसता हूं, जिसने महज 20 मिनट की इस बातचीत के बाद कुछ सौ रुपये के एवज में तुम्हें मुझसे दूर कर दिया। कितनी बाते अनकही रह गईं हमारे बीच। जानता हूं तुम शायद ही कभी मिलोगी....

4 comments:

  1. कैसी विडम्बना और कटु सत्य हमारे ही परिवेश का ..... आपके शब्दों ने संवेदनशील ढंग से उसे उकेरा भी ....

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  2. स्वप्निल बहुत ही सही और मर्म को छुने. वाले शब्दों के से साथ समाज को आइना दिखाया है. आप बधाई के पात्र है.

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  3. पन्‍ने पर समय व प्रोत्‍साहन देने के लिए मोनिका जी और लक्ष्‍मण जी का शुक्रिया.

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  4. story told with the honesty of soul... nice work, keep it up. looking forward to many more honest stories in future!!

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