Monday, December 19, 2011

प्रोग्रामिंग की पाठशाला


कंप्यूटर और इसकी तकनीक की सबसे अच्छी बात यह है कि  इसकी बेसिक जानकारी होने के बाद यह हमारे लिए पूरी तरह से सेल्फ लर्निंग बन जाती है। यानि कि यदि आपकी इसमें रुचि है और आप इस तकनीक को समय दे रहे हैं तो अपनी रुचि के अनुसार इससे कई चीजे सीखी जा सकती हैं। हम आज यहां एक ऐसे वेबसाइट की बात करेंगे, जिसपर यदि समय दिया जाए, तो कुछ ही महीनों के भीतर एक अच्छा वेबसाइट डवलपर बना जा सकता है। यह वेबसाइट मुफ्त है और यह किसी पर्सनल ट्यूटर की तरह ही ट्रेनिंग देती है। यानि, मंहगे ट्यूशन्स से मुक्ति और सीखने के बाद घर बैठकर हाथ में रोजगार का एक अच्छा अवसर। 

'डब्ल्यू थ्री स्कूल्स' नाम की यह वेबसाइट लर्नर्स को एचटीएमएल, जावा, एक्सएमएल जैसे कई कंप्यूटर लैंग्वेज लर्निंग टूल उपलब्ध कराती है। यहां आपको तीन सेक्शन्स- ट्यूटोरियल, ट्राय इट यॉरसेल्फ और रिफरेंसेज के आधार पर ट्रेनिंग दी जाती है। इसमें होमपेज पर बायीं ओर विषयों की सूची दी गई है। इस वेबसाइट की खासियत यह है कि यहां आप 'ट्राय इट यॉरसेल्फ' सेक्शन में ऑनलाइन एक्सरसाइज भी कर सकते हैं। होमपेज पर नीचे, क्विज और एग्जामपल्स का लाभ भी लिया जा सकता है। बच्चों और प्रोफेशनल्स दोनों के लिए ही यह वेबसाइट मददगार है क्योंकि अपनी सुविधानुसार आप जब चाहें तब यहां ई-लर्निंग कर सकते हैं।

पता है - www.w3schools.com

राजस्थान पत्रिका के एजुकेशन सप्लीमेंट ' मी नेक्स्ट ' में दिनांक - 18 दिसम्बर 2011  को प्रकाशित 

Monday, December 12, 2011

अनुवाद की दुनिया


ज के  इस दौर में अंग्रेजी और हिन्दी भाषा की जानकारी होना सामान्य के साथ ही जरूरी भी है। हिन्दी जहां हमारी राजभाषा है, वहीं अंग्रेजी के बिना इस ग्लोबल जगत में आगे बढ़ पाना मुश्किल है। ज्यादा से ज्यादा भाषाओं की जानकारी होने से आपकी पहुंच उन भाषा के साहित्य औरसंस्कृति तक भी बनती है। आज यदि आपको हिंदी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं की अच्छी जानकारी  है, तो आपकी यह खूबी आपको बेहतर करियर ऑप्शन भी दिलाती है। आज हर क्षेत्र में अंग्रेजी-हिन्दी अनुवादक के काम को सराहा जाता है। अनुवाद में रुचि होने पर आप घर बैठे भी आसानी से पैसे कमा सकते हैं। एक अच्छे अनुवादक के लिए सबसे जरूरी है समय के साथ अंग्रेजी-हिन्दी अनुवाद की दुनिया में आए बदलाव, चलन और बहसों की जानकारी होना और उस आधार पे खुद को अपडेट रखना। ब्लॉग ‘अनुवाद की दुनिया’ आपको इन्हीं जानकारियों के लिए अपनी ओर खींचता है। ब्लॉग पर आपको अंगे्रजी के शब्दों को देवनागरी लिपि में लिखने की प्रचलित विधि और चली आ रही अशुद्धियों में सुधार की जानकारी मिलती है। यह ब्लॉग आपको अंग्रेजी-हिन्दी अनुवाद में मदद के लिए ऑनलाइन लिंक्स उपलब्ध कराता है। इसके अलावा इस ब्लॉग के माध्यम से अपको हिन्दी भाषा के नए शब्द और नई बहसों से भी रूबरू होने का मौका मिलता है। 

ब्लॉग का पता है- anuvaadkiduniya.blogspot.com

राजस्थान पत्रिका के एजुकेशन सप्लीमेंट ' मी नेक्स्ट ' में दिनांक -10 दिसम्बर 2011  को प्रकाशित 

Saturday, December 10, 2011

व्हाट इज नेक्स्ट डूड !


टेक्नोलॉजी और गैजेट्स में इंट्रेस्ट रखने वाले हर यूजर की जुबां पर एक आम सवाल है- 'व्हाट इज नेक्स्ट'। पीसी, लैपटॉप, स्मार्टफोन से लेकर सोशल साइट्स, ब्लॉगिंग और क्रिएटिव वेबसाइट्स ने आज के यूथ को एक  वर्चुअल वर्ल्ड दिया है। एक ऐसा वर्ल्ड जहां हर पल कुछ नया, बेहतर और इंट्रेस्टिंग होता रहता है। ऐसे में सबसे पहले नई जानकारियों तक अपनी पहुंच बनाना, गजेट्स के लॉन्चिग से पहले उसके फीचर्स को इवेल्युएट करना और नए आपरेटिंग ट्रिक्स को  जानना अपने आप में इंट्रेस्टिंग काम है। जी हां, हमारा आज का ब्लॉग 'ऑनलाइन इंस्पिरेशन' कुछ ऐसी ही जानकारियों से जुड़ा हुआ है या शायद उससे कहीं ज्यादा!

स ब्लॉग के होम पेज पर आपको हर दो-तीन दिन में अपडेशन के साथ लेटेस्ट पीसी ट्रेंड, साफ्टवेयर डाउनलोड, गैजेट्स रिव्यू के साथ ही रोचक टेक्निकल न्यूज मिल जाएंगे। होमपेज के राइट और लेफ्ट साइड में ऊपर से नीचे की ओर अलग-अलग सेक्शन्स में फ्री सॉफ्टवेयर डाउनलोड, कंप्यूटर और इंटरनेट सिक्यूरिटी टिप्स से लेकर ऑनलाइन ऑफर्स, ब्लॉगर्स कॉर्नर, फेसबुक टिप्स, मोबाइल सॉफ्टवेयर एंड ट्रिक्स जैसे कई लेटेस्ट यूजफूल आर्टिकल्स उपलब्ध हैं। सास बात यह है कि यहां आपको हर टिप्स एंड ट्रिक्स को स्टेप वाइज पिक्चर्स के साथ बताया गया है, जिससे यह यूजर्स के लिए ईजी अंडरस्टैंडेबल है।

म्मीद है यहां आपको आपके 'व्हाट इज नेक्स्ट' का जवाब मिल जाएगा!! 
ब्लॉग का पता है- skvnet.blogspot.com


राजस्थान पत्रिका के एजुकेशन सप्लीमेंट ' मी नेक्स्ट ' में दिनांक - 3 दिसम्बर 2011  को प्रकाशित 

Monday, September 5, 2011

भ्रष्टाचार, सदाचार और आंदोलन


चार लाख लोग। दो सौ शहर। बारह दिन। एक नेता और एक नारा “एक-दो-तीन-चार नहीं सहेंगे भ्रष्टाचार”। भ्रष्टाचार के विरोध में जनयुद्ध रुपी अन्ना हजारे के अनशन को खत्म हुए लगभग एक सप्ताह हो गया है।आजादी के बाद (वाया जेपी आंदोलन) यह एक ऐसी ऐतिहासिक लड़ाई रही, जिसने सदन में बैठे लोगों को यह बखूबी समझा दिया कि जनता से ही देश और उनका अस्तित्व है, न की देश और उनसे, जनता का। आजादी के बाद यूं तो कई छोटे-मोटे आंदोलन हुए, लेकिन ऐसा जनसमर्थन और स्वस्फूर्त उद्गार शायद ही देखने को मिला। इसमें कोई शक नहीं है कि भ्रष्टाचार ने हमारे समाज और इसके तंत्र को ऊपर से नीचे तक अपनी चपेट में लिया हुआ है। भ्रष्टाचार से तंग जनता ने इस आंदोलन में अपनी ताकत को पहचाना है। यही कारण है कि युवाओं से लेकर बूढों तक सब ने इस आंदोलन में शिरकत की। यह आंदोलन अपने मकसद में कितना सफल हुआ और कितना नहीं यह तय करने में अभी समय लगेगा, क्योंकि लोकपाल विधेयक का शीतकालीन सत्र से पहले पारित होने के कोई आसार फिलहाल नजर नहीं आ रहे हैं, लेकिन इस आन्दोलन ने हमें एक ऐसा विषय दिया है जिसपर विचार करना जरुरी हो गया है।
भ्रष्ट आचार, यानि कोई भी ऐसा कृत्य जो अनैतिक हो भ्रष्टाचार है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर कुछ भी अनैतिक करना भ्रष्टाचार है, तो ऑटो में बिना मीटर चलवाये बैठना और बस में बिना टिकट लिए कडंक्टर से सस्ते में निपट लेना, क्या भ्रष्टाचार नहीं है? कहने का अर्थ यह कि आज सबसे पहले हमें भ्रष्टाचार को परिभाषित करने की जरुरत है। आन्दोलन के दौरान सड़को पर विरोध में नारे लगाना तो समझ में आता है पर बेखौफ और बेरोकटोक ठाठ से सड़क के नियमों को तोड़ना और फिर भ्रष्टाचार की हाय-हाय करना, खुद को गाली देने जैसा ही जान पड़ता है। ये तो महज् छोटे उदाहरण हैं, यदि खुद के दैनिक क्रियाकलापों पर ही गौर करें तो हम जान पाएंगे कि भ्रष्टाचार कैसे हमारे दिनचर्या में सहज तरीके से फिट हो गया है। स्थिति ऐसी है कि हम यह अंदाजा ही नहीं लगा पाते कि हम कहां और कितने भ्रष्ट हैं।
स पूरी मंत्रणा के बाद सवालों के घेरे में हम खुद आ जाते हैं कि क्या हम इस तरह एक भ्रष्टाचार मुक्त समाज और तंत्र का निर्माण कर पाएंगे? क्या बिना खुद में परिवर्तन लाए हम सामने वाले से सदाचार की उम्मीद रख सकते हैं? यकीनन नहीं। वस्तुस्थिति ऐसी है कि आंदोलन के दौरान जहां एक ओर हम गांधी जी के आर्दर्शो को सिर-माथे लेकर घूम रहे थें, वहीं दूसरी ओर गांधी जी के “आप भला तो जग भला” कथन की अनसूनी भी कर रहे थें। हम भूल रहे हैं कि यदि स्थितियों में बदलाव लाना है तो हमें स्वयं को भी बदलना होगा। अन्ना के साथ भावनाओं का जुड़ना और समर्थन में जनसैलाब का उमड़ना इसी कारण संभव हो पाया कि अन्ना की छवि एक निःस्वार्थ और ईमानदार नेतृत्वकर्ता की रही है, एक ऐसा नेता जो सामाजिक मकसद के लिए लड़ाई लड़ता आया है और अपनी जान तक देने को तैयार है।
भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है, खुद अन्ना ने भी मंच से कहा कि यह आधी जीत है। मेरी समझ से भ्रष्टाचार के खिलाफ यह लड़ाई तब तक खत्म नहीं हो सकती जबतक की हम खुद से लड़कर, अपने अंदर के भ्रष्टाचार को भी खत्म नहीं कर लेते। भ्रष्टाचार के खिलाफ यह आंदोलन एक शुरुआत है। व्यवस्था तंत्र को सुदृढ और जिम्मेदार बनाने के लिए अनेकों और आंदोलनों की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के साथ-साथ व्यक्तिगत भ्रष्टाचार को भी खत्म करने का प्रयास करें, ताकि सही मायने में भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल सके। 

Tuesday, August 16, 2011

आज़ादी की खीर


आठ साल के बबलू को उसकी मां सुमिता ने आज अहले सुबह 5 बजे ही जगा दिया है। ना नुकुर करता बबलू अभी और सोना चाहता है। सुमिता उसे याद दिलाती है कि आज 15 अगस्त है। मां की बात सुनते ही बबलू झट से उठ जाता है। उसकी नींद 15 अगस्त का नाम सुनते ही छु-मंतर हो गई है। आधे घंटे में बबलू तैयार होकर मां के साथ अपने छोटे से तंबुनुमा घर से बाहर निकल आता है। बगल के स्कूल में सारें जहां से अच्छा... गीत बज रहा है। बबलू को यह सब बहुत अच्छा लगता है। तभी सामने के घर से जुम्मन चाचा अपने बेटे फारूक के साथ निकलते हैं। चाचा अपने हाथ में थामें झोले को खोलते हैं जिसमें सैकड़ों छोटे-छोटे प्लास्टिक के तीरंगे झंडे हैं।

रोज की जिंदगी से इतर आज का दिन बबलू के लिए खास है। आज उसे ट्रैफिक पर हाथ फैलाने की बजाय लोगों को झंडा बेचना है। वह और उसकी मां पिछले कई दिनों से इस दिन के लिए पैसें जमा कर रहे थें, ताकि झंडे खरीदकर वह उन्हें सडकों पर बेच सके। आज कमाई ज्यादा होगी। बबलू की मां ने आज दोपहर उसे खीर खिलाने का वादा किया है। 

बबलू और उसकी मां अपने घर के पास वाले चौराहे पर ही झंडे लेकर खड़े  हो जाते हैं जबकि चाचा अपने बेटे, जो बबलू से उम्र में 2 साल बड़ा है, के साथ शहर के मुख्य चौराहे पर गए हैं। चाचा हर रोज इसी तरह नयी चीजे लेकर बेचने निकलते हैं। करीब 15 मिनट के इंतजार के बाद सड़क पर हलचल बढ़ जाती है। रंग-बिरंगे और साफ-सुथरे कपड़ों में स्कूली बच्चों का दल प्रभात फेरी के लिए निकल चुका है। सड़क पर भीड़ बढ़ रही है। बबलू दौड़-दौड़कर लोगो को झंडे लेने के लिए प्रलोभित कर रहा है। कई बार पुलिस घेरे के अंदर घुस जाने पर उसे पुलिस वालों ने डंडे भी दिखाए, जिस पर वह हंसता हुआ वहां से भाग गया। इधर सुमिता का ध्यान झंडा बेचने के साथ ही बबलू पर लगा हुआ है। वह हर पल उसपर नजर बनाये हुई है। वह कई बार बबलू को डांटती भी है। वह कहती है, ‘क्या पता सड़क पर बेखबर दौड़ती गाडिय़ों से कहीं कुछ अनहोनी ना हो जाए।’

करीब साढ़े तीन घंटे बाद, सड़क पर भीड़ अब कम हो चली है। सुमिता, बबलू से कहती है कि चल अब शायद कोई नहीं खरीदने वाला, घर चलते हैं। बबलू के हाथ में एक झंडा बचा हुआ है वह उसे बेच कर जाने की  जिद कर रहा है। मां उसके जिद के आगे लाचार है, तभी सामने से एक युवा दंपत्ति की गाड़ी ट्रैफिक पर रूकती है। बबलू अपनी मासूम आवाज में झंडे खरीदने को कहता है। इस तरह उसका आखिरी झंडा भी बिक गया। वह कूदते हुए मां को आखिरी झंडे के पैसे दिखाता है और घर चलने के लिए कहता है।

घर पर चाचा और फारूक अच्छी कमाई होने को ले उत्साहित हैं। मां खीर बना रही है। बबलू और फारूक बचे हुए कुछ झंडों से आजादी-आजादी खेल रहे हैं। दोनों सारे जहां से अच्छा... टूटे-फूटे लफ्जों में गा रहे हैं। खीर बन गया है। सुमिता बबलू को खीर परोसती है। खीर की खुशबु से बबलू का चेहरा खिला हुआ है। सुमिता खीर खा रहे बबलू को एकटक देख रही है। अचानक उसकी आंखों से आंसूओं की धारा बह निकलती है। उसका मन आज वापस गांव जाने को कर रहा है। 

आज सुबह स्कूली बच्चों को देख सुमिता को एक साल पहले गांव में अपने जीवन की याद आ गयी, जब वह 15 अगस्त को सुबह उठ बबलू को पड़ोस के सरकरी स्कूल के लिए तैयार करती थी। पर आज कुछ भी वैसा नहीं है। गांव के जिस जमीन पर वह काम करती थी उसे सरकार ने अधिग्रहित कर लिया है। वहां अब बड़े-बड़े मकान बनने हैं। उसका पति उन्हें छोड़ विदेश कमाने गया है। दो साल हो गए, उसकी कोई खोज-खबर नहीं है। गांव वाले कहते हैं कि वो किसी दुर्घटना में मर गया है, लेकिन सुमिता यह मानने को तैयार नहीं है। गांव वालों के उलाहने से परेशान सुमिता, बबलू को ले पास के शहर आ गई है... काफी कोशिशों के बाद भी काम न मिल पाने के कारण वह सड़को पर           हाथ फैलाने के लिए मजबूर है।....

बबलू के आवाज लगाने पर सुमिता का ध्यान टूटा। बबलू खीर खत्म कर चुका है। वह मां से उसके रोने की वजह पूछता है। सुमिता कुछ  नहीं बोलती है, बस अपने आंचल से आंसु पोंछते हुए बबलू को अपने सीने से लगा लेती है। मां के आंचल की गर्मी में बबलू अब सो चुका है और सुमिता दूर कहीं शून्य को निहार रही है।....


जनसत्ता समाचार पत्र के "समांतर" स्तंभ में दिनांक- 06 सितम्बर 2011 को प्रकाशित

Sunday, May 29, 2011

भाषा और व्यक्तित्व : क्या और कितना है संबंध

मनोवैज्ञानिकों से लेकर समाज वैज्ञानिकों तक में यह सवाल हमेशा से प्रबल रहा है कि क्या भाषा हमारे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालती है?  इस विषय से संबंधित शोध निष्कर्षों ने यह साबित किया है कि हमारी भाषा का हमारे व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव रहता है। यह ना सिर्फ हमारे बोलचाल बल्कि हमारे सोचने के तरीके को भी तय करती है।
    भाषा असल में हमारे आपसी संचार में सबसे प्रभावी तत्व है, इसके बिना हम सफल संचार की  कल्पना तक  नही कर सकते। ऐसे में जब हम किसी भाषा को सीखते हैं तो इसके साथ ही हम उस भाषा से संबंधित संस्कृति और परंपराओं को भी ग्रहण करते हैं। उदाहरण के लिए हम जिस किसी क्षेत्र में रहते हैं, बोली बोलते हैं तो धीरे-धीरे हमारी चाल-ढाल और हमारा आचरण भी उसी क्षेत्र विशेष की तरह हो जाता है। विचार किजिये  कि जब हम कार्यालय या किसी अन्य जगह पर अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे होते हैं तो ऐसे स्थानों पर हमारे पहनावे से लेकर हमारे तौर-तरीको में भी अंग्रेजीयत झलकती है, वहीं जहाँ हम राजभाषा हिंदी का प्रयोग कर रहे होते हैं तो वहां हमारे आचरण और विचारों में थोड़ी सौम्यता आ जाती है, हम अपने से बड़ो के लिए आप आदि जैसे शब्दों का प्रयोग कर हमारी संस्कृति का परिचय देते हैं। यहां इसका अर्थ यह नहीं कि अंग्रेजी में बड़ो का सम्मान नही होता पर हाँ, यह जरूर है हिंदी में इसकी  थोड़ी अधिकता है। कहने का तात्पर्य यह कि हिंदी स्वाभाव से ही एक सौम्य भाषा है, जबकि अंग्रेजी में इसकी तुलना थोड़ी आक्रामकता है।
         अब बात यह कि भाषा कैसे हमारे सोचने के तरीके को तय करती है। इसके दो सबसे बेहतरीन उदाहरण हमारी मीडिया और युद्ध के समय सेना को दिये जाने वाले संदेशो की भाषा है। गौर करे तो दिन भर में हमारी मीडिया द्वारा कई एक  तरह की खबरें दी जाती है। निश्चित है कि  खबरों की विधा अलग-अलग होती है और फलस्वरूप खबर की भाषा शैली में भी अंतर होता है। ऐसे में जब हमारी मीडिया किसी उल्लासपूर्ण खबर का  वाचन कर रही होती है तो उसकी भाषा में वह उल्लास दिखता है और उस खबर पर विचार के दौरान हमारे अन्दर भी उसी उल्लास का संचार होता है। वहीं किसी  दुखद घटना के  दौरान उसकी भाषा शैली से हमारे अंदर उसीके समान दुख का संचार होता है। ठीक इसी तरह युद्ध के दौरान जब सेना को संदेश दिये जाते है तो उसकी  भाषा शैली में एक उर्जा होती है जो उन्हें युद्ध के मैदान में आगे बढऩे के  लिए प्रेरित करती हैं। 
    हमारे व्यवहारिक जीवन में भी यह देखने को मिलता है कि  यदि किसी स्थान पर इस्तेमाल की जाने वाली भाषा सभ्रांत होती है तो वहां के लोगों के  व्यक्तिव और आचरण में एक सु-संस्कृति  झलकती है। वहीं इससे इतर यदि किसी स्थान की भाषा मर्यादित न हो तो वहां के लोगों के विचार और तौर-तरीको का भी गैर मर्यादित होना साफ दिखता है।

Thursday, April 7, 2011

ये साली जिंदगी: बोल्डनेस और गंभीरता का अनूठा मेल


इन दिनों बॉलीवुड में गंभीर फिल्में बनाने वाले निर्देशकों का रूख बदला है। पिछले दिनों मधुर भंडारकर जो अपनी लीक से हटकर और सार्थक सिनेमाशैली के लिए जाने जाते हैं ने अपनी गंभीर शैली से अलग “दिल तो बच्चा है जी” बनाई। इसी क्रम को आगे बढाते हुए अपनी फिल्मों से अलग पहचान बना चुके सुधीर मिश्रा जिनकी पिछली फिल्में “हजारों ख्वाहिशें ऐसी” और “इस रात की सुबह नहीं” भले ही बॉक्स ऑफिस पर टिक नहीं पाई, लेकिन इन फिल्मों को खास दर्शकवर्ग ने पसंद किया। इन फिल्मों ने समीक्षकों से भी जमकर वाहवाही लूटी।



फिलहाल, सुधीर की इस फिल्म को देखकर लगता है शायद उन्होंने इस बार बॉक्स ऑफिस की कसौटी पर खड़ा उतरने की चाह में कहीं न कहीं कोई समझौता किया है। वर्ना, दो अलग अलग स्टाइल की प्रेम कहानियों को जरूरत से ज्यादा हॉट सीन और डेढ़ दर्जन से ज्यादा चुंबन दृश्य को फिट किए बिना भी आसानी से कहा जा सकता था।



फिल्म की रिलीज से चंद दिन पहले सुधीर ने एक दैनिक से बातचीत के दौरान दबे स्वर में इस सच को कबूला कि “रोजी रोटी चलानी है, तो इंडस्ट्री में हजारों ख्वाहिशें.. और इस रात.. जैसी फिल्मों के दम पर टिका नहीं जा सकता, आपको ऐसा भी कुछ करना पड़ता है जो लोग चाहते है।” ऐसा नहीं है कि सुधीर की इस फिल्म में उनकी पिछली फिल्मों जैसा कुछ भी नहीं है, इस फिल्म की कसी हुई पटकथा और अपनी बात को कहने का सुधीर का अंदाजे बया कुछ ऐसा है, जो दर्शक को अंत तक बांधने का दम रखता है। वर्ना, अंडरवर्ल्ड और गुनाह की दुनिया से जुड़े दो किरदारों की प्रेम कहानी को सरल ढंग से भी कहा जा सकता था। लेकिन, फिल्म में हर पल कुछ ऐसा घटित होता है, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। फिल्म की शुरुआत में गोलियों और गालियों की बौछार के बीच कहानी को फ्लैश बैक का सहारा लेकर आगे बढ़ाने का मजेदार अंदाज, सुधीर जैसे निर्देशक ही कर सकते है। इस फिल्म की टैग लाइन है कुछ गोलियां मार डालती हैं, तो कुछ गोलियां जान बचाने के काम में आती हैं।

फिल्म की कहानी प्रीति (चित्रांगदा सिंह) और अरुण (इरफान खान) से शुरू होती है। अरूण, प्रीति को बहुत चाहता है, लेकिन अपने प्यार को चाहकर भी बयां नहीं कर पाता। प्रीति श्याम को चाहती है और हालात कुछ ऐसे बनते है कि अरुण को प्रीति से पहले श्याम को बचाना है। श्याम जल्दी ही एक बड़े नेता का दामाद बनने वाला है। वहीं कुलदीप (अरुणोदय सिंह) को भी एक काम पूरा करना है, फिरौती और भाईगीरी के धंधे में लगे कुलदीप का जेल आना जाना उसकी बीवी शांति (अदिति राव) को पसंद नहीं। कुलदीप को इस धंधे से छुड़ाने के लिए शांति उसे धमकी देती है कि वह इस धंधे को हमेशा के लिए छोड़ दे, वर्ना वह हमेशा के लिए उसका घर छोड़ कर चली जाएगी। कुलदीप को शक है कि शांति का किसी और से चक्कर है और इसलिए वह उसे हमेशा छोड़ना चाहती है। कुलदीप को मंत्री के होने वाले दामाद श्याम को किडनैप कर उससे मोटी रकम वसूलनी है। अरुण को जब पता चलता है कि प्रीति मुसीबत में है, तो वह उसे इस मुसीबत से निकालने का मकसद लेकर एकबार फिर उसकी जिंदगी में आता है। प्रीति और शांति की लव स्टोरी में अंडरवर्ल्ड का खूनी खेल, फिरौती वगैरह सब कुछ है, लेकिन फिल्म के आखिर तक हॉल में बैठा दर्शक क्लाइमैक्स का अंदाजा ही लगा पाता है।

फिल्म के अभिनय पक्ष को देखे तो कुलदीप के रोल में अरुणोदय पूरी तरह से फिट है। सुधीर मिश्रा की चहेती चित्रांगदा ने फिर साबित किया कि अपने रोल के साथ न्याय करना वह अच्छी तरह से जानती हैं। अदिति राव ने ऐक्टिंग से ज्यादा चुंबन दृश्य को करने पर ध्यान दिया और एक फिल्म में सबसे ज्यादा चुंबन का रेकॉर्ड अपने नाम किया। यशपाल अपने रोल के साथ न्याय किया है। सुशांत ने एक बार फिर वही किया जो इससे पहले भी कई बार कर चुके हैं, लेकिन ये भी सच है कि इस तरह के रोल में वो जंचते हैं।



सुधीर ने अपनी इमेज के विपरीत इस बार अपनी कहानी का अलग तरह का अंत किया है। वहीं, सिंपल कहानी को किस तरह से तोड़मरोड़ कर उसमें बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ मसालों को परोसा जाए, इस काम में भी सुधीर पीछे नहीं रहे। जरूरत से ज्यादा अश्लील गालियों और मिनटों तक लंबे चुंबन दृश्यों को दिखाना समझ से परे है।

संगीत पक्ष में फिल्म का टाइटिल गाना “ये साली जिंदगी” म्यूजिक चार्ट में अपनी जगह बना चुका है। वहीं तेज रफ्तार से चलती इस कहानी में गानों की ज्यादा गुंजाइश भी नहीं थी। अजय झींगरन का गाया मोरा पिया का फिल्मांकन बेहतरीन है और अजय की सुरीली आवाज ने इस गाने में जान डाल दी।



अगर आप लीक से हटकर, बोल्ड और कुछ ऐसा देखना चाहते है जो बहुत हद तक समाज में हो रहा है, तो ऐसे सच को देखने के लिए फिल्म देखी जा सकती है। वर्ना बोल्ड सीन और सेंसर की मेहरबानी से डबल मीनिंग डायलॉग और गालियों से मालामाल इस फिल्म में फैमिली और साफ सुथरी फिल्मों के शौकीनों के लिए कुछ भी नहीं। एक और बात जो इस फिल्म के संदर्भ में समझ से परे है कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म के टाईटल में “साली” शब्द को ले अपने नाक-भौं सिकोड़ लिये लेकिन 21चुंबन दृश्यों को लेकर सेंसर बोर्ड में कोई कानाफूसी भी नहीं है।

Sunday, February 20, 2011

आप सुन रहे हैं, बीबीसी हिन्दी ।।


शाम का समय है। आंगन में लगे खाट पर बैद्यनाथ चाचा लेटे हुए हैं और खुले आसमान में तारों की टिमटिमाहट को निहार रहे हैं। इतने में चाचा की 12 साल की पोती खाना लेकर आती है, पर न जाने क्यों चाचा आज खाने से इंकार कर देते है!

बैद्यनाथ चाचा, बिहार के मधेपुरा जिले के एक छोटे से गांव ईटवा के रहने वाले हैं। चाचा यहॉ के एकमात्र मध्य विद्यालय में शिक्षक हुआ करते थे। सेवानिवृति के बाद भी चाचा ने पठन-पाठन नहीं छोड़ा और आज भी लगभग हर शाम गॉव के लोग, चाचा से देश-विदेश की जानकारी लेने और समझने के लिए इक्ठ्ठा होते हैं। चाचा का गॉव आज भी विकास की बाट जोहता है। गॉव में अखबार तब ही आता है, जब कोई 10 कि0मी0 दूर शहर जाता है। चाचा हमेशा से गॉव के लोगों के लिए खबरों के एक विश्वसनीय स्रोत रहें हैं।

गॉव के लोगों और बैद्यनाथ चाचा के लिए रेडियो, समाचार और सूचनाओं का एकमात्र उपलब्ध माध्यम है। आम दिनों की तरह आज जब शाम 7 :30 बजे चाचा रेडियो पर बीबीसी समाचार सुन रहे थे, तो एक खबर ने चाचा को शांत और गमगीन होने पर मजबूर कर दिया। खबर थी कि “ पहली अप्रेल से वित्तीय घाटे की वजह से बीबीसी रेडियो का हिन्दी प्रसारण बंद हो रहा है।”

रेडियो पर खबर के मामले में बीबीसी का अपना एक अलग रुतबा रहा है। या यू कहें कि रेडियो पर समाचार का अर्थ ही बीबीसी है, तो मेरी समझ से इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 11 मई 1940 को पहली बार बीबीसी लंदन से हिन्दी में प्रसारण हुआ था। शुरुआती दिनों में “बीबीसी हिन्दुस्तानी सर्विस” के नाम से शुरू किए गए इस प्रसारण का उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उपमहाद्वीप के ब्रितानी सैनिकों तक समाचार पहुंचाना था। वर्ष 1994 में दिल्ली में बीबीसी का हिन्दी सेवा ब्यूरो बनाया गया। अपने शुरुआती दिनों से लेकर अबतक के अपने इस 70 साल के सफर में बीबीसी ने समाचार जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। बीबीसी हिन्दी सेवा अपनी विशिष्ट भाषा शैली और निष्पक्षता के लिए हमेशा से जानी जाती रही है।

“अगर सही खबर चाहिए तो बीबीसी सुनिये।” पूरे विश्व में यह एक मुहावरा बन चुका है और यह बीबीसी की उत्कृष्टता का सबसे बड़ा उदाहरण है। लेकिन, यह उत्कृष्टता, निष्पक्षता और विश्वसनीयता बैद्यनाथ चाचा और उन जैसे करोड़ो लोगों के लिए बस यादें बन कर रह जाएंगी। एक अपुष्ट आंकड़े की माने तो बीबीसी हिन्दी रेडियो सेवा बंद होने से कुल तीन करोड़ लोग प्रभावित होंगे। खुद बीबीसी इस आंकड़े को दो करोड़ तक मानता है। ऐसे में सवाल उठता है कि केवल रेडियो पर खबरों के लिए आश्रित लोगों के पास  अब क्या विकल्प बचते हैं?

रेडियो पर बीबीसी के अलावा हिन्दी में “एआईआर आकाशवाणी” ही एकमात्र लेाकप्रिय विकल्प है। हालांकि “रेडियो डॉचीवेले” और “रेडियो जर्मनी” भी समाचार प्रसारण करते हैं पर जैसा कि पहले ही स्पष्ट है, कि ये उतने लोकप्रिय नहीं हैं। अब बात आकाशवाणी की तो यह रेडियो स्टेशन प्रसार भारती प्रसारण बोर्ड के अन्दर ही आता है, वैसे कहने के लिए तो यह बोर्ड एक स्वायत्त संस्था है लेकिन इसकी स्वायत्ता कितनी प्रभावी है ये जगजाहिर है। यानि स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि इसकी खबरों पर सरकार का कमोबेश नियंत्रण रहता है। ऐसे में निष्पक्षता जैसे शब्द बेमानी साबित होते हैं। एक और विकल्प के तौर पर एफएम रेडियो चैनल्स आते हैं पर वर्तमान में “एफएम गोल्ड” और “एफएम रेनबो” जो एआईआर आकाशवाणी के ही अंग हैं, के अलावा किसी अन्य को समाचार प्रसारण की ईजाजत नहीं है। पता नही एफएम चैनलों (गैर सरकारी) पर समाचार प्रसारण को लेकर सरकार इतने संशय में क्यों है?

यानि लब्बोलुबाब यही है कि एक अप्रेल से बीबीसी हिन्दी प्रसारण बंद होने से निश्चित तौर पर रेडियो पर समाचार प्रसारण का एक स्वर्णीम युग बीत जाएगा। तथ्य है, कि किसी भी राष्ट्र के विकास में सूचना और संचार सबसे अहम् होते हैं। प्रथम, द्वितीय और तृतीय विश्व के देशों में विकसीत, विकासशील और पिछड़ा होने का अंतर बहुत हद तक इसी सूचना और संचार के असंतुलन के कारण है। यानि कि देश की एक बड़ी आबादी तक पुष्ट और निष्पक्ष सूचनाओं के न पहुंचने से अब विकास की कल्पना करना मूर्खता होगी।

हालांकि बीबीसी हिन्दी समाचार प्रेमियों के लिए वेब पर बीबीसी हिन्दी सेवा जारी रहेगी। लेकिन यह भी सच्चाई है कि हमारे देश में अभी भी महज् 6.9 प्रतिशत लोगों तक ही इंटरनेट की पहुंच है। वर्तमान में मोबाईल क्रांती और 3जी की शुरुआत होने से इसकी संख्या निश्चित तौर पर बढेगी, लेकिन फिर भी बैद्यनाथ चाचा और उनके जैसों के गॉवों तक इंटरनेट को पहुंचने में काफी समय लगेगा।

ऐसे में सवाल उठता है कि, क्या सरकार रेडियो समाचार प्रसारण की नीति में कोई अहम् बदलाव लाएगी या फिर अपने विकास के ईमारत को केवल कागजों पर खिंचती रहेगी।

Friday, January 21, 2011

पुस्तकों का बिखरता संसार

शाम के 5 बज रहे हैं, हॉल में अब गिने-चुने लोग ही नजर आ रहे हैं। बचे हुए लोग अब अपनी प्रदर्शनी समेटने में लगे हुए हैं। नरेन्द्र शर्मा भी इनमें से एक हैं। नरेन्द्र चुपचाप एकटक लगाकर अपनी समेटी हुई किताबों को देख रहें हैं।
आज यहॉ एक पुस्तक प्रदर्शनी लगी थी, जहॉ दिल्ली शहर के कुल 11 अधिकृत विक्रेता अपने संस्था की छपी किताबें लेकर आये थे। इनमें से नरेन्द्र एक हैं। नरेन्द्र उठते हैं और बुझे हुए मन से अपनी किताबों केा ऑटो में रखते हैं। पिछले कुछ 25 सालों से नरेन्द्र इस व्यवसाय से जुड़े हैं। पहले वो एक साधारण पुस्तक विक्रेता हुआ करते थे, लेकिन अब 16 सालों से उन्होंने अधिकृत विक्रेता के रूप में व्यवसाय किया है। दिखने में नरेन्द्र एक मध्य वर्गीय समृ़द्ध नजर आते हैं, पर आज वो उदास हैं।

नरेन्द्र के साथ ही पुस्तक प्रदर्शनी में आये उनके साथी शैलेन्द्र पाण्डेय बताते हैं कि आज सुबह से ही वो दोनों अपने स्टॉल पर लगातार बने हुए हैं। दिन भर लोगों की काफी भीड़ प्रदर्शनी में आयी। उनके स्टॉल को भी लोगों ने उत्साह से लिया और किताबों के बारे में जानकारीयॉ ली। लेकिन सुबह से लेकर अबतक कुल 12 किताबें ही बिक पाईं है। शैलेन्द्र को लगता है कि नरेन्द्र की उदासी शायद इसी वजह से है।

शैलेन्द्र जो पिछले 10 सालों से व्यवसाय में नरेन्द्र की सहायता कर रहे हैं, बताते हैं कि अब पुस्तक प्रदर्शनियों में पहले जैसा उत्साह नहीं दिखता है। इन प्रदर्शनियों में भीड़ तो आती है पर खरीद-फरोक्त बिल्कुल नहीं के बराबर रह गयी है। आज से 5 साल पहले तक इस तरह की प्रदर्शनियों में जहॉ दिनभर में 100 से ज्यादा किताबें बिकती थीं, वो अब दहाई या ईकाई के अंको तक सिमट कर रह गई है। प्रदर्शनी में आने वाली भीड़ अब किताबें देखकर वापस चली जाती हैं।

किताबों के प्रति पाठकों के इस घटते रूझान के बारे में शैलेन्द्र बताते हैं कि अब पाठक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा कंप्यूटर और इंटरनेट पर उपलब्ध ई-बुक की ओंर चला गया है। कोई भी अब 500 रू0 देकर किताब नहीं खरीदना चाहता क्योंकि वही किताब उसे वेब पर 2 से 3 क्लिक में मुफ्त में मिल जाती हैं। शैलेन्द्र बताते हैं कि नरेन्द्र की मूल चिंता व्यवसाय में घटता मुनाफा ही है जो उन्हें लगातार परेशान करता है।

इंटरनेट के युग में आज इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि पाठकों का रूझान मुद्रित यानी छपी हुई किताबों के प्रति कम हुआ है। बदलते समय के साथ कंप्यूटर और इंटरनेट ने हमारे सहयोगी और मित्र के साथ-साथ अब एक शिक्षक की भूमिका भी निभानी शुरू कर दी है। आज गूगल ई-बुक के अलावा सैकड़ो ऐसे वेब पोर्टल हैं जो ई-बुक की सुविधा देते है। इनमें से कई मुफ्त है तो कईयों के लिए थोड़े पैसे भी देने पड़ते हैं। हाल ही में छपे एक रिपोर्ट के आधार पर ई-बुक से संबंधित लगभग हर पोर्टल से साप्ताहिक डाउनलोड हो रहे कंटेंट की संख्या 10 हजार है। महज् 12 महिने पहले शुरू हुए एक पोर्टल पर अब तक डेढ़ करोड़ विजिटर आ चुके हैं। इस वेबसाईट से पिछले माह कुल 42 हजार ५ सौ 38 ई-बुक डाउनलोड हुए हैं।

ई-बुक के प्रति पाठकों के बढते रूझान का एक सबसे बड़ा कारण वेब पर मिनटों में विषय से संबंधित सैंकड़ो संदर्भो तक अपनी पहुँच बनाना है। इसके अलावा लैपटॉप, ई-बुक रीडर, मोबाईल पीडीएफ आदि उपकरणों के माध्यम से राह चलते भी इंटरनेट तक पहुँच बनाना संभव हो पाया है। इसके अलावा ये उपकरण किताबों के मुकाबले सुगम और रखरखाव के लिए भी बेहतर विकल्प हैं।

लेकिन इन सब के बीच जो एक दूसरा पक्ष उभरता है वो यह कि तकनीक के इस दौड़ में कहीं न कहीं किताबें दम तोड़ रही हैं। हालांकि आज भी इंटरनेट की पहुँच  से लाखों लोग दूर हैं, पर अब 2जी और 3जी तकनीक के आने से निश्चित तौर पर इसका दायरा बढेगा। ऐसे में सवाल उठता है कि, क्या आने वाले समय में किताबों का दौड़ खत्म हो जायेगा?
क्या फुर्सत के पलों में बिस्तर पर लेटकर किताबों के पन्ने पलटना बीती बात हो जायेगी?

Friday, January 7, 2011

मैं बेकार हूँ ......... मैं किसान हूँ ।

           पिछले दिनों मैं पटना से अपने घर मधेपुरा के लिए ट्रेन से सफर कर रहा था। ट्रेन में मेरी बगल वाली सीट पर रामानंद शर्मा बैठे थे। बातों-बातों में मैनें उनसे एक सवाल पूछा कि आपका पेशा क्या है? इस पर उन्होनें मुझे जो जबाब दिया वो कुछ हद तक मुझे स्तब्ध करने वाला और सोचने पर मजबूर करने वाला था। उन्होनें जबाब दिया कि “मैं कुछ नहीं करता, बेकार हूँ ........... किसान हूँ।”

मैं जबाब सुनकर चुप हो गया, कुछ देर सोचा फिर बोला कि आप ऐसा क्यों सोचते है कि आप बेकार हैं। अरे! आप लोगों पर ही तो देश आश्रित है। मेरी ये बातें थोड़ी दार्शनिक थी, लेकिन जब रामानंद जी जबाब दे रहे थे तो उनकी ऑखों में निराशा साफ झलक रही थी।

सफर लंबा था, इसलिए मैनें उनसे कुछ और जानना चाहा। उन्होनें बताया कि उन्होनें वर्ष 1988 में अपनी स्नातक की पढाई पूरी की और तबसे कृषि के व्यवसाय से जुड़े हुए है। पहले एक ट्रेक्टर भी खरीदा था, जो घाटे के कारण बेचना पड़ा। रामानंद जी की माली हालत पिछले कुछ सात सालों से ठीक हुई है। उनका बेटा सीआईएसएफ में भर्ती हुआ है। अब तो उन्होनें कर्ज लेकर मकान भी बना लिया है। कृषि उत्पादन की घटती दर और घाटे को देखते हुए उन्होनें अगले कुछ वर्षों में कृषि छोड़ गॉव में पठन-पाठन से जुड़ने का निर्णय लिया है। इस पर मैनें उनसे कहा कि वो कृषि को न छोड़े, क्योंकि यही हमारे देश की पहचान है और उन्हीं लोगों के कारण भारत किसानों का देश कहलाता है। पर मेरी ये बातें व्यावहारिक न थी जिसे मैं और वो दोनों बखूबी जानते थे।

आज ना जाने रामानंद जैसे और कितने किसान कृषि छोड़ कुछ और करने की सोच रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर आने वाले समय में देश के सामने एक समस्या खड़ी होने वाली है। एकतरफ किसान खेती से निराश होकर आत्महत्या कर रहे हैं और दूसरी तरफ कृषि सरीखा व्यवसाय छोड़ने पर विवश हो गए है। कृषि में उत्पादन और किसानों को हो रहे घाटे की बात आज किसी से छिपी नहीं है। आजादी के समय जहॉ देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 50 से 70 प्रतिशत था, वो आज घटकर 17 प्रतिशत तक आ गया है। यही नही अभी भी इसमें निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है।

दूसरी तरफ खेती से निराश होकर आत्महत्या कर रहे किसानों की संख्या भी लगातार बढ रही है। द हिन्दू में 28 सितंबर को छपी एक रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1997 से लेकर अबतक कुल 2 लाख 16 हजार 5 सौ किसानों ने आत्महत्या की है। आत्महत्या की यह समस्या पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक रही है। केवल बीते वर्ष दिसंबर में 125 किसानों ने खेती की बदहाली से तंग आकर आत्महत्या की है।

 आत्महत्या के इस बढती दर के कारणों की बात करे तो मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में आयी कमी के अलावा जो कुछ और कारण है जिन्होनें किसानों की कमर तोड़ दी है में, बीजों और खासकर खाद की कालाबाजारी के अलावा मजदूरों के लगातार विस्थापन की समस्या भी एक है। इसके अलावा अनाज पर समर्थन मूल्य जो किसानों की मेहनत और लागत के मुकाबले कहीं खड़ा नही उतरता ने भी कृषि को धक्का पहुँचाया है।
          समर्थन मूल्य का चक्कर तो ऐसा है कि बीते वर्ष पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में गेंहू की बुआई भी न हो सकी। खेतों में गन्ने की फसल लगी उचित समर्थन मूल्य न मिल पाने के कारण जस की तस पड़ी रही। अगर आगे भी खेतों में इसी तरह फसल लगी रही गई और समय पर बुआई नही हो पायी तो यकिनन खद्यान्न संकट में बढोत्तरी ही होगी।

           केन्द्र और राज्य सरकारें भले ही कृषि और किसानों को लेकर खासी चिंता व्यक्त करें पर सच्चाई यही है कि जमीनी स्तर पर ऐसा कोई काम देखने को नही मिला है, जो खेती और किसानों की समस्याओं के समाधान में सकारात्मक भूमिका निभाएं।




    
जनसत्ता समाचार पत्र के "समांतर" स्तंभ में दिनांक- 21 जनवरी 2011 को प्रकाशित