Friday, January 21, 2011

पुस्तकों का बिखरता संसार

शाम के 5 बज रहे हैं, हॉल में अब गिने-चुने लोग ही नजर आ रहे हैं। बचे हुए लोग अब अपनी प्रदर्शनी समेटने में लगे हुए हैं। नरेन्द्र शर्मा भी इनमें से एक हैं। नरेन्द्र चुपचाप एकटक लगाकर अपनी समेटी हुई किताबों को देख रहें हैं।
आज यहॉ एक पुस्तक प्रदर्शनी लगी थी, जहॉ दिल्ली शहर के कुल 11 अधिकृत विक्रेता अपने संस्था की छपी किताबें लेकर आये थे। इनमें से नरेन्द्र एक हैं। नरेन्द्र उठते हैं और बुझे हुए मन से अपनी किताबों केा ऑटो में रखते हैं। पिछले कुछ 25 सालों से नरेन्द्र इस व्यवसाय से जुड़े हैं। पहले वो एक साधारण पुस्तक विक्रेता हुआ करते थे, लेकिन अब 16 सालों से उन्होंने अधिकृत विक्रेता के रूप में व्यवसाय किया है। दिखने में नरेन्द्र एक मध्य वर्गीय समृ़द्ध नजर आते हैं, पर आज वो उदास हैं।

नरेन्द्र के साथ ही पुस्तक प्रदर्शनी में आये उनके साथी शैलेन्द्र पाण्डेय बताते हैं कि आज सुबह से ही वो दोनों अपने स्टॉल पर लगातार बने हुए हैं। दिन भर लोगों की काफी भीड़ प्रदर्शनी में आयी। उनके स्टॉल को भी लोगों ने उत्साह से लिया और किताबों के बारे में जानकारीयॉ ली। लेकिन सुबह से लेकर अबतक कुल 12 किताबें ही बिक पाईं है। शैलेन्द्र को लगता है कि नरेन्द्र की उदासी शायद इसी वजह से है।

शैलेन्द्र जो पिछले 10 सालों से व्यवसाय में नरेन्द्र की सहायता कर रहे हैं, बताते हैं कि अब पुस्तक प्रदर्शनियों में पहले जैसा उत्साह नहीं दिखता है। इन प्रदर्शनियों में भीड़ तो आती है पर खरीद-फरोक्त बिल्कुल नहीं के बराबर रह गयी है। आज से 5 साल पहले तक इस तरह की प्रदर्शनियों में जहॉ दिनभर में 100 से ज्यादा किताबें बिकती थीं, वो अब दहाई या ईकाई के अंको तक सिमट कर रह गई है। प्रदर्शनी में आने वाली भीड़ अब किताबें देखकर वापस चली जाती हैं।

किताबों के प्रति पाठकों के इस घटते रूझान के बारे में शैलेन्द्र बताते हैं कि अब पाठक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा कंप्यूटर और इंटरनेट पर उपलब्ध ई-बुक की ओंर चला गया है। कोई भी अब 500 रू0 देकर किताब नहीं खरीदना चाहता क्योंकि वही किताब उसे वेब पर 2 से 3 क्लिक में मुफ्त में मिल जाती हैं। शैलेन्द्र बताते हैं कि नरेन्द्र की मूल चिंता व्यवसाय में घटता मुनाफा ही है जो उन्हें लगातार परेशान करता है।

इंटरनेट के युग में आज इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि पाठकों का रूझान मुद्रित यानी छपी हुई किताबों के प्रति कम हुआ है। बदलते समय के साथ कंप्यूटर और इंटरनेट ने हमारे सहयोगी और मित्र के साथ-साथ अब एक शिक्षक की भूमिका भी निभानी शुरू कर दी है। आज गूगल ई-बुक के अलावा सैकड़ो ऐसे वेब पोर्टल हैं जो ई-बुक की सुविधा देते है। इनमें से कई मुफ्त है तो कईयों के लिए थोड़े पैसे भी देने पड़ते हैं। हाल ही में छपे एक रिपोर्ट के आधार पर ई-बुक से संबंधित लगभग हर पोर्टल से साप्ताहिक डाउनलोड हो रहे कंटेंट की संख्या 10 हजार है। महज् 12 महिने पहले शुरू हुए एक पोर्टल पर अब तक डेढ़ करोड़ विजिटर आ चुके हैं। इस वेबसाईट से पिछले माह कुल 42 हजार ५ सौ 38 ई-बुक डाउनलोड हुए हैं।

ई-बुक के प्रति पाठकों के बढते रूझान का एक सबसे बड़ा कारण वेब पर मिनटों में विषय से संबंधित सैंकड़ो संदर्भो तक अपनी पहुँच बनाना है। इसके अलावा लैपटॉप, ई-बुक रीडर, मोबाईल पीडीएफ आदि उपकरणों के माध्यम से राह चलते भी इंटरनेट तक पहुँच बनाना संभव हो पाया है। इसके अलावा ये उपकरण किताबों के मुकाबले सुगम और रखरखाव के लिए भी बेहतर विकल्प हैं।

लेकिन इन सब के बीच जो एक दूसरा पक्ष उभरता है वो यह कि तकनीक के इस दौड़ में कहीं न कहीं किताबें दम तोड़ रही हैं। हालांकि आज भी इंटरनेट की पहुँच  से लाखों लोग दूर हैं, पर अब 2जी और 3जी तकनीक के आने से निश्चित तौर पर इसका दायरा बढेगा। ऐसे में सवाल उठता है कि, क्या आने वाले समय में किताबों का दौड़ खत्म हो जायेगा?
क्या फुर्सत के पलों में बिस्तर पर लेटकर किताबों के पन्ने पलटना बीती बात हो जायेगी?

Friday, January 7, 2011

मैं बेकार हूँ ......... मैं किसान हूँ ।

           पिछले दिनों मैं पटना से अपने घर मधेपुरा के लिए ट्रेन से सफर कर रहा था। ट्रेन में मेरी बगल वाली सीट पर रामानंद शर्मा बैठे थे। बातों-बातों में मैनें उनसे एक सवाल पूछा कि आपका पेशा क्या है? इस पर उन्होनें मुझे जो जबाब दिया वो कुछ हद तक मुझे स्तब्ध करने वाला और सोचने पर मजबूर करने वाला था। उन्होनें जबाब दिया कि “मैं कुछ नहीं करता, बेकार हूँ ........... किसान हूँ।”

मैं जबाब सुनकर चुप हो गया, कुछ देर सोचा फिर बोला कि आप ऐसा क्यों सोचते है कि आप बेकार हैं। अरे! आप लोगों पर ही तो देश आश्रित है। मेरी ये बातें थोड़ी दार्शनिक थी, लेकिन जब रामानंद जी जबाब दे रहे थे तो उनकी ऑखों में निराशा साफ झलक रही थी।

सफर लंबा था, इसलिए मैनें उनसे कुछ और जानना चाहा। उन्होनें बताया कि उन्होनें वर्ष 1988 में अपनी स्नातक की पढाई पूरी की और तबसे कृषि के व्यवसाय से जुड़े हुए है। पहले एक ट्रेक्टर भी खरीदा था, जो घाटे के कारण बेचना पड़ा। रामानंद जी की माली हालत पिछले कुछ सात सालों से ठीक हुई है। उनका बेटा सीआईएसएफ में भर्ती हुआ है। अब तो उन्होनें कर्ज लेकर मकान भी बना लिया है। कृषि उत्पादन की घटती दर और घाटे को देखते हुए उन्होनें अगले कुछ वर्षों में कृषि छोड़ गॉव में पठन-पाठन से जुड़ने का निर्णय लिया है। इस पर मैनें उनसे कहा कि वो कृषि को न छोड़े, क्योंकि यही हमारे देश की पहचान है और उन्हीं लोगों के कारण भारत किसानों का देश कहलाता है। पर मेरी ये बातें व्यावहारिक न थी जिसे मैं और वो दोनों बखूबी जानते थे।

आज ना जाने रामानंद जैसे और कितने किसान कृषि छोड़ कुछ और करने की सोच रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर आने वाले समय में देश के सामने एक समस्या खड़ी होने वाली है। एकतरफ किसान खेती से निराश होकर आत्महत्या कर रहे हैं और दूसरी तरफ कृषि सरीखा व्यवसाय छोड़ने पर विवश हो गए है। कृषि में उत्पादन और किसानों को हो रहे घाटे की बात आज किसी से छिपी नहीं है। आजादी के समय जहॉ देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 50 से 70 प्रतिशत था, वो आज घटकर 17 प्रतिशत तक आ गया है। यही नही अभी भी इसमें निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है।

दूसरी तरफ खेती से निराश होकर आत्महत्या कर रहे किसानों की संख्या भी लगातार बढ रही है। द हिन्दू में 28 सितंबर को छपी एक रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1997 से लेकर अबतक कुल 2 लाख 16 हजार 5 सौ किसानों ने आत्महत्या की है। आत्महत्या की यह समस्या पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक रही है। केवल बीते वर्ष दिसंबर में 125 किसानों ने खेती की बदहाली से तंग आकर आत्महत्या की है।

 आत्महत्या के इस बढती दर के कारणों की बात करे तो मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में आयी कमी के अलावा जो कुछ और कारण है जिन्होनें किसानों की कमर तोड़ दी है में, बीजों और खासकर खाद की कालाबाजारी के अलावा मजदूरों के लगातार विस्थापन की समस्या भी एक है। इसके अलावा अनाज पर समर्थन मूल्य जो किसानों की मेहनत और लागत के मुकाबले कहीं खड़ा नही उतरता ने भी कृषि को धक्का पहुँचाया है।
          समर्थन मूल्य का चक्कर तो ऐसा है कि बीते वर्ष पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में गेंहू की बुआई भी न हो सकी। खेतों में गन्ने की फसल लगी उचित समर्थन मूल्य न मिल पाने के कारण जस की तस पड़ी रही। अगर आगे भी खेतों में इसी तरह फसल लगी रही गई और समय पर बुआई नही हो पायी तो यकिनन खद्यान्न संकट में बढोत्तरी ही होगी।

           केन्द्र और राज्य सरकारें भले ही कृषि और किसानों को लेकर खासी चिंता व्यक्त करें पर सच्चाई यही है कि जमीनी स्तर पर ऐसा कोई काम देखने को नही मिला है, जो खेती और किसानों की समस्याओं के समाधान में सकारात्मक भूमिका निभाएं।




    
जनसत्ता समाचार पत्र के "समांतर" स्तंभ में दिनांक- 21 जनवरी 2011 को प्रकाशित