Monday, September 5, 2011

भ्रष्टाचार, सदाचार और आंदोलन


चार लाख लोग। दो सौ शहर। बारह दिन। एक नेता और एक नारा “एक-दो-तीन-चार नहीं सहेंगे भ्रष्टाचार”। भ्रष्टाचार के विरोध में जनयुद्ध रुपी अन्ना हजारे के अनशन को खत्म हुए लगभग एक सप्ताह हो गया है।आजादी के बाद (वाया जेपी आंदोलन) यह एक ऐसी ऐतिहासिक लड़ाई रही, जिसने सदन में बैठे लोगों को यह बखूबी समझा दिया कि जनता से ही देश और उनका अस्तित्व है, न की देश और उनसे, जनता का। आजादी के बाद यूं तो कई छोटे-मोटे आंदोलन हुए, लेकिन ऐसा जनसमर्थन और स्वस्फूर्त उद्गार शायद ही देखने को मिला। इसमें कोई शक नहीं है कि भ्रष्टाचार ने हमारे समाज और इसके तंत्र को ऊपर से नीचे तक अपनी चपेट में लिया हुआ है। भ्रष्टाचार से तंग जनता ने इस आंदोलन में अपनी ताकत को पहचाना है। यही कारण है कि युवाओं से लेकर बूढों तक सब ने इस आंदोलन में शिरकत की। यह आंदोलन अपने मकसद में कितना सफल हुआ और कितना नहीं यह तय करने में अभी समय लगेगा, क्योंकि लोकपाल विधेयक का शीतकालीन सत्र से पहले पारित होने के कोई आसार फिलहाल नजर नहीं आ रहे हैं, लेकिन इस आन्दोलन ने हमें एक ऐसा विषय दिया है जिसपर विचार करना जरुरी हो गया है।
भ्रष्ट आचार, यानि कोई भी ऐसा कृत्य जो अनैतिक हो भ्रष्टाचार है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर कुछ भी अनैतिक करना भ्रष्टाचार है, तो ऑटो में बिना मीटर चलवाये बैठना और बस में बिना टिकट लिए कडंक्टर से सस्ते में निपट लेना, क्या भ्रष्टाचार नहीं है? कहने का अर्थ यह कि आज सबसे पहले हमें भ्रष्टाचार को परिभाषित करने की जरुरत है। आन्दोलन के दौरान सड़को पर विरोध में नारे लगाना तो समझ में आता है पर बेखौफ और बेरोकटोक ठाठ से सड़क के नियमों को तोड़ना और फिर भ्रष्टाचार की हाय-हाय करना, खुद को गाली देने जैसा ही जान पड़ता है। ये तो महज् छोटे उदाहरण हैं, यदि खुद के दैनिक क्रियाकलापों पर ही गौर करें तो हम जान पाएंगे कि भ्रष्टाचार कैसे हमारे दिनचर्या में सहज तरीके से फिट हो गया है। स्थिति ऐसी है कि हम यह अंदाजा ही नहीं लगा पाते कि हम कहां और कितने भ्रष्ट हैं।
स पूरी मंत्रणा के बाद सवालों के घेरे में हम खुद आ जाते हैं कि क्या हम इस तरह एक भ्रष्टाचार मुक्त समाज और तंत्र का निर्माण कर पाएंगे? क्या बिना खुद में परिवर्तन लाए हम सामने वाले से सदाचार की उम्मीद रख सकते हैं? यकीनन नहीं। वस्तुस्थिति ऐसी है कि आंदोलन के दौरान जहां एक ओर हम गांधी जी के आर्दर्शो को सिर-माथे लेकर घूम रहे थें, वहीं दूसरी ओर गांधी जी के “आप भला तो जग भला” कथन की अनसूनी भी कर रहे थें। हम भूल रहे हैं कि यदि स्थितियों में बदलाव लाना है तो हमें स्वयं को भी बदलना होगा। अन्ना के साथ भावनाओं का जुड़ना और समर्थन में जनसैलाब का उमड़ना इसी कारण संभव हो पाया कि अन्ना की छवि एक निःस्वार्थ और ईमानदार नेतृत्वकर्ता की रही है, एक ऐसा नेता जो सामाजिक मकसद के लिए लड़ाई लड़ता आया है और अपनी जान तक देने को तैयार है।
भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है, खुद अन्ना ने भी मंच से कहा कि यह आधी जीत है। मेरी समझ से भ्रष्टाचार के खिलाफ यह लड़ाई तब तक खत्म नहीं हो सकती जबतक की हम खुद से लड़कर, अपने अंदर के भ्रष्टाचार को भी खत्म नहीं कर लेते। भ्रष्टाचार के खिलाफ यह आंदोलन एक शुरुआत है। व्यवस्था तंत्र को सुदृढ और जिम्मेदार बनाने के लिए अनेकों और आंदोलनों की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के साथ-साथ व्यक्तिगत भ्रष्टाचार को भी खत्म करने का प्रयास करें, ताकि सही मायने में भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल सके। 

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