Wednesday, September 11, 2013

पहली और शायद आखिरी मुलाकात!


 जून की उस रात में तुमसे मेरी वह पहली मुलाकात थी और शायद आखिरी भी! मैं रोज की तरह ऑफिस  से घर लौट रहा था। सच कहूं तो पहली बार जब तुमने मुझे टोका था तो थोड़ा संकोच हुआ था, लेकिन उस 20 मिनट ने तुम और तुम्हारी बिरादरी से मेरे सारे संकोच दूर कर दिए। मैं आज भी तुम्हारे बारे में सोचता हूं तो पहले पहल यही ख्याल आता है कि तुम्हारा असली नाम क्या होगा। मेरे कई बार पूछने के बावजूद तुमने बताया भी नहीं था। तुमने मुस्कुरा कर बस इतना कहा था, 'कुछ भी कह लो रे, हम जैसों के नाम तो कपड़ों के रंग से साथ बदलते है।' वैसे मेरी इच्छा थी कि तुम्हे 'दुर्गा' नाम दूं, क्योंकि वह शक्ति का प्रतीक है।

मैंने पहले भी तुम्हें वहां देखा था। हां, वह तुम नहीं थी, लेकिन वह तुम ही थी। मेरी नजर में तुम एक प्रतीक हो उस समाज कि जिससे हम असामाजिक चिढते हैं। मुझे तब उस तथाकथित बुद्धिजीवी टाइप दिखने वाले वृद्ध की अज्ञानता पर तरस आया था जब उसने तुम्हें तिरस्कार भरी नजरों से देखा और मुझसे कहा कि इन ’हिजड़ों’ से दूर रहो। तुमने अपने चिर-परिचित अंदाज में उसे देखकर बस ताली बजा दी थी।

तुमने बताया था कि तुम रोज दिन में स्नान कर एक घंटे पूजा करती हो। इसलिए नहीं कि तुम्हारी ईश्वर में आस्था है बल्कि इसलिए कि अगले जन्म में तुम्हें फिर से इस जीवन की तरह सजा न मिले। मुझे इस बात का दुख हुआ था कि तुम यह मान बैठी हो कि तुमने पिछले जन्म में कुछ पाप किए थे, इसलिए ईश्वर ने तुम्हें ऐसा बनाया। मैंने इस पर तुम्हें टोका भी था, लेकिन तुम्हारे लिए मेरे पास तर्क नहीं थे। सच कहूं तो मैं यह सोचने मात्र से सिहर जाता हूं कि आठ साल की उम्र में मुझे मेरे समाज से लेकर मेरे अपने तक स्वीकारने से इन्कार कर दें। मेरे बेहतर कल के ख्वाब 300 रुपये की मामूली रकम पर अंधेरी चिमनी में झोक दिए जाए और 13 साल की उम्र से मेरा मन, मेरा शरीर और मेरी आत्मा रोज कई मर्तबा वासना के भार तले कुचली जाए। यह सब भी इसलिए कि मेरे साथ उसने एक भद्दा मजाक किया, जो खुद को भगवान कहता है।

तुम्हारे जिस बेबाक बर्ताव से लोग घृणा करते हैं, मुझे उस रात वही एक मात्र व्यवहारिक बर्ताव लग रहा था। तुमने जिस तरह पुलिस वाले के टोकने पर उसे चिढाने के लिए अपनी स्कर्ट उपर की थी और तुम्हारी संगी ने उसपर ताली ठोकी थी। या फिर उस वृद्ध से तुम्हारे बर्ताव पर ही मुझे हंसी नहीं आई थी। मैं यही सोच रहा था कि तुम ठीक ही कर रही हो। भला समाज ने तुम्हें ऐसा क्या दिया है कि तुम उसकी संस्कृति को पूजो। तुम्हारा वह सवाल भी मुझे चुप कर देने वाला ही था कि क्या रोजी-रोटी के लिए इस तथाकथित सभ्य समाज का कोई भी कोरपोरेट संस्थान तुम्हें अपने यहां काम देगा? कागजों और वक्तव्यों में भले ही ऐसा संभव भी हो, लेकिन व्यवहारिक तौर पर क्या कोई तुम्हें अपनी बराबरी में कुर्सी पर बैठकर काम करने देगा? मैं तुम्हारी बात को काटना चाहता था, लेकिन तुम्हारे तर्क मेरे तर्कों से कहीं ज्यादा व्यवहारिक जान पड़ रहे थे।

मैं आज भी कई बार उस लाल गाड़ी को कोसता हूं, जिसने महज 20 मिनट की इस बातचीत के बाद कुछ सौ रुपये के एवज में तुम्हें मुझसे दूर कर दिया। कितनी बाते अनकही रह गईं हमारे बीच। जानता हूं तुम शायद ही कभी मिलोगी....

Saturday, September 22, 2012

सिनेमा का 'सलमान जॉनर'


'एक था टाइगर',  पिछले कुछ समय में आई 'सलमान जॉनर' या यूं कहें कि 'सलमानदा फिल्मों' से अलग है। फिल्म सलमान खान की दमदार एंट्री के बाद अगले ही पल से स्लो हो जाती है। सलमान से एक्टिंग की अपेक्षा नहीं रहती, लेकिन आप उनसे भरपूर मनोरंजन की उम्मीद जरूर रखते हैं। फिल्म आपको शुरू से निराश करती है। फिल्म के दौरान आप यही सोचते हैं कि अब कुछ ऐसा होगा जो रोमांच लाएगा, लेकिन यह इंतजार लंबा खिचता है। हालांकि इस बीच सलमान अपने अंदाज में हास्य के पुट जरूर जोड़ते हैं जो गुदगुदाती तो है, लेकिन हंसी को ज्यादा देर तक बनाए रखने में सफल नहीं होती। इस तरह फिल्म के दौरान आप यह निर्णय करने लगते हैं कि फिल्म पकाउ है और बोर कर रही है। लेकिन तभी फिल्म बदलती है। फिल्म का 'सलमान जॉनर' में प्रवेश होता है। यहां से कहानी, निर्देशन, एक्शन और 'सलमानिया अंदाज' आपको अंत तक बंधे रखती है। अंत में फिल्म अपने बहुचर्चित सॉन्ग ट्रैक 'माशाल्लाह' से खुशनुमा अंदाज में खत्म होती है। फैंस गीत गुनगुनाते बाहर निकलते हैं और पूछने पर यही बताते हैं कि फिल्म अच्छी लगी। फिल्म के बोरियत पक्ष पर सवाल करने पर आपको सीधा जबाव मिलता है, 'सलमान हैं, तो फिल्म जबदस्त है।'

15 अगस्त 2003 को सतीश कौशिक निर्देशित और सलमान खान आभिनित फिल्म 'तेरे नाम' रीलीज हुई थी। इस फिल्म से रूपहले परदे पर पहले पारिवारिक और फिर दिलफेंक अंदाज वाला 'प्रेम' कॉलेज के रौबदार दादा सरीखे 'राधेमोहन' में परिणत हुआ था। राधे का किरदार रौबदार जरूर हो, लेकिन उसका प्रेम गहरा था। यानी 'प्रेम' की छवि यहां भी थी। कहने की जरूरत नहीं कि इस फिल्म ने उस समय सलमान के रूक से गए कॅरियर को नया आयाम दिया था। इस फिल्म से न सिर्फ सलमान के स्टारडम की वापसी हुई थी, बल्कि इस फिल्म में सलमान के अभिनय पक्ष को भी खासी सराहना भी मिली थी।

ठीक नौ साल बाद 15 अगस्त 2012 को कबीर खान निर्देशित फिल्म 'एक था टाइगर' रीलीज हुई। तारीख भले ही मेल खा रही हो, लेकिन समय और परिस्थितियां बदल चुकी हैं। आज सलमान स्टारडम के उस मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां उन्हें किसी 'तेरे नाम' की जरूरत नहीं है। 2009 में आई 'वॉन्टेड' और 2011 में 'दबंग', 'रेडी' और 'बॉडीगार्ड' जैसी फिल्मों ने भारतीय सिनेमाई संसार को पहली बार, पहले ही दिन से अकूत कमाई का रास्ता दिखाया। खास बात यह रही कि इस तरह की अप्रत्याशित सफलता के बावजूद इनमें से किसी भी फिल्म ने सलमान के अभिनेता-पक्ष को कोई विस्तार नहीं दिया। इतना ही नहीं इन फिल्मों में न तो कुछ नया था और न ही कुछ विषेष। फिर था क्या? यदि इस सवाल का जवाब ढूँढने निकले तो इन चारों में एक ही समानता थी और वह है खुद 'सलमान'। यानी 1989 में परदे पर प्रेम करने, बांटने और बाद के दिनों में प्रेम के गुरू तक बन जाने वाले सलमान ने 23 वर्षों के सिनेमाई सफर में अपने चाहने वालों के दिल में ऐसा 'प्रेम' जगाया कि सब 'प्रेम' में अंधे हो गए। एक ऐसा अंधा प्रेम जिसने परदे से कहानी, गीत-संगीत, निर्देशन जैसे तमाम पक्षों को धता बताते हुए सिनेमा का एक नया जॉनर ही विकसित कर दिया। आज यह जॉनर न सिर्फ फिल्म के सफलता की गारंटी बन गया है, बल्कि यह हर बार सफलता और कमाई के नए रिकॉर्ड बनाता है।

'एक था टाइगर' ने पहले ही दिन लगभग 32 करोड़ की कमाई की जो अब तक पहले दिन की सबसे ज्यादा कमाई है। फिल्म की एडवांस बुकिंग की कमाई साढ़े पांच करोड़ रूपए है जो एडवांस बुकिंग से कमाई का रिकॉर्ड है। इसके अलावा भारतीय सिनेमाई संसार की यह पहली फिल्म है, जिसे पहले दिन मल्टीप्लैक्स समेत तमाम स्क्रीन्स पर 95 से 100 फीसदी दर्शक मिले। यानी रिकॉर्ड और आंकड़ों का अंबार। सलमान इस साल दिसंबर में 'दबंग-2' और अगले ईद पर सोहेल खान निर्देशित 'शेरखान' लेकर आ रहे हैं, जिसे लेकर अभी से रिकॉर्ड के कयास लगने शुरू हो गएँ हैं।

ऐसे में फिलवक्त यही कहा जा सकता है कि सलमान भारतीय सिनेमा जगत के ऐसे स्टार हैं, जिनकी लाख आलोचना के बाद भी उनकी रियासत यानी उनके फैंस पर कोई असर नहीं होता। न तो सलमान और न ही उनके फैंस को फिल्म के हिट या पिट जाने की फिक्र होती है। इस नयी 'सलमान जॉनर' की फिल्मों को भले ही आलोचक सिरे से नकार रहे हों, लेकिन यह भी सच है कि उनकी पिछली फिल्मों ने सिनेमाई मनोरंजन की नई परिभाषा ही गढ़ दी है। ऐसे में यह भी संभव है कि सिनेमा के स्वर्णीम इतिहास के लेखन में आलोचक 'सलमान' शब्द से ही कन्नी काट लें, लेकिन ऐसा करना सिनेमा के उस खास दर्शक वर्ग पर आघात ही होगा, जो महीने के पैसे बचाकर अपने हीरो को बड़े परदे पर देखने की हसरत रखता है। कल को सलमान भले ही राजेश खन्ना, दिलीप कुमार, देवआनंद या अमिताभ बच्चन की तरह एक अभिनेता के रूप में न याद किए जाएं, लेकिन बतौर ट्रेंड सेटर और एक नए जॉनर को विकसित करने के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। 

एक कटु सत्य यह भी है कि सलमान की यह आंधी ज्यादा समय तक बॉक्स ऑफिस को बांध नहीं पाएगी, लेकिन यह जब तक चलेगी अपने मदमस्त चाल में रहेगी, यह तय है। ऐसे में दो ही बातें संभव है- एक की आप उनकी आलोचना करें और इस आंधी रूपी नशे के उतरने का इंतजार करें या दूसरा यह कि सिनेमा के इस नए मनोरंजन विधा का आनंद लें। खुद का मनोरंजन करें, जो सिनेमा के  बहूदेश्यों में से एक है। यदि 'सलमान जॉनर' या 'सलमानिया अंदाज' में कहें, तो 'जस्ट चिलैक्स....'



(दिल्ली से प्रकाशित होने वाली फिल्म पत्रिका 'सतरंगी संसार' के सितम्बर अंक में प्रकाशित)

Sunday, August 26, 2012

बंदी, उत्सव और हलवा डे


पिछले दिनों 15 अगस्त के लिए एक सॉफ्ट स्टोरी की दरकार थी, ऐसे में जयपुर के केन्द्रीय कारागृह जाना हुआ। किसी खास अवसर पर जेल की यह मेरी पहली यात्रा थी। इससे पहले स्कूल के दिनों में जेल देखने के लिए शौकिया तौर पर मंडल कारा, मधेपुरा भी जाना हुआ था। बहरहाल, अबकी जेल यात्रा से लौटकर यह स्टोरी तैयार की, जिसे 15 अगस्त के जस्ट जयपुर अंक में लीड स्टोरी बनाई गई। यह अलग बात है कि इस दौरान विज्ञापन की बाढ़ में इस  स्टोरी को भी एक अलग-सी चाहरदीवारी में सिमटना पड़ा। पूरी स्टोरी यहां साझा कर रहा हूं।

केंद्रीय कारागृह, जयपुर 
जेल, यह शब्द सुनते ही मन में एक अलग-सी धारणा बन जाती है। ऐसी जैसे इस चाहरदीवारी के अंदर कुछ भी अच्छा न होगा। कैद होगी, घुटन होगी, आंसू होंगे, सख्त कानून होंगे और न जाने क्या-क्या। लेकिन शहर के केन्द्रीय कारागृह में कुछ भी ऐसा नहीं है। हमारे सिनेमाई संसार ने भले ही परदे पर हमें जेल का ऐसा ही स्वरूप दिखाया, लेकिन यहां अंदर का माहौल किसी खुशहाल परिवार जैसा लगा। परिवार नहीं, तो कम से इसने बचपन के दिनों में स्कूली कैम्प की याद जरूर दिला दी। जहां हफ्तों तक अनुशासन और शिक्षकों की निगरानी में हम कुछ सीखने जाते थे। शिक्षा यहां भी मिलती है- भविष्य को बेहतर और अनुशासित बनाने की।
        यूं तो बंदियों के लिए इस चाहरदीवारी की हर सुबह सूर्योदय के साथ शुरू और सूर्यास्त के साथ बैरकों में बंद हो जाती है, लेकिन आज 15 अगस्त का दिन खास है। आज देश स्वतंत्रा की 65वीं वर्षगाठ मना रहा है। शरीर भले ही चाहरदीवारी में कैद हो, लेकिन मन में स्वतंत्र नागरिक की भावना और चेहरे पर स्वंत्रता का उत्साह इन बंदियों पर पिछले कई दिनों से दिख रहा है। 

खास है ये सुबह
वर्तमान में केन्द्रीय कारा के लगभग 2200 कैदियों के लिए 15 अगस्त की सुबह अन्य दिनों से बिल्कुल अलग होगी। वे इस दिन की तैयारी पिछले कई हफ्तों से कर रहे हैं। झंडोत्तलन, राष्ट्रगान, देशभक्ति से ओत-प्रोत संवादो के साथ आज का पूरा दिन नाटक और कुछ अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम रहेगा। 

खूब जमेगा रंग
कारागृह में एक बड़ा हॉल है, जहां लगभग 700-800 लोगों के बैठने का स्थान है। सामने एक स्टेज है, जहां आज सांस्कृतिक कार्यक्रमों का दौर चलेगा। जेल का सांस्कृतिक विभाग और उससे जुड़े साथी कई दिनों से बंदियों के साथ मिलकर इस दिन की तैयारी कर रहे हैं। प्रशासन की ओर से उन्हें इसके लिए म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स, डेकोरेशन के साथ ही राजस्थान के पारंपरिक लिबास भी उपलब्ध करवाए गए हैं। कारागार के उप-अधीक्षक प्रमोद शर्मा बताते हैं कि यहां बंदियो की रचनात्मक अभिव्यक्ति  देखने को मिलती है, जो उनके प्रति सामाजिक धारणा को बदल कर रख देती है। 

स्पेशल है 'हलवा डे'
आज कारागृह में बंदियों समेत सभी को कुछ मीठा खाने को मिलेगा। साल में 26 जनवरी, होली, 15 अगस्त, दीवाली और ईद में यहां कुछ मीठा खाने का रिवाज है।  इसके तहत अंग्रेजों के समय से हलवा परोसने की प्रथा है। ऐसे में बंदी समेत जेल अधिकारियों को हलवे की मीठी सुगंध का खास इंतजार है। 

बड़े परदे का रोमांच
यूं तो कारागृह में टीवी पर फिल्म दिखाई जाती हैं, लेकिन आज का दिन विशेष है। हाल ही यहां बंदियों के लिए प्रोजेक्टर लगवाया गया है। जिस पर आज 'क्रांति' और 'शहीद' जैसी देशभक्ति फिल्में दिखाई जानी हैं। यानी बड़े परदे के साथ मंनोरंजन भी बड़ा होगा। 

ये भी बांटते हैं खुशियां
बंदियों के इस दिन को खास बनाने के लिए शहर के कई स्कूल और स्वयंसेवी संस्थाएं 15 अगस्त और इसके आस-पास जेल में कार्यक्रम का आयोजन करती हैं। इस दौरान मिठाइयों का दौर भी चलता है। 

सेलिब्रेशन भुलाता है गम
कारागृह के उप-अधीक्षक प्रमोद शर्मा बताते हैं कि  समाज से अलग समझने पर कैदियों को काफी ठेस पहुंचती है। जब कोई अपना उनसे मिलने नहीं आता, तो उनको अलगाव महसूस होता है। लेकिन जब सभी कैदी मिलकर स्वतंत्रता दिवस या अन्य उत्सव मनाते हैं, तो उनको यह कमी नहीं खलती और वे पूरा दिन हंसी-खुशी एक पारिवारिक आयोजन की तरह एकजुट होकर मनाते हैं। 

जज्बा देखते ही बनता है
कारागृह अधीक्षक ओटाराम  रोहिन ने बताया कि इस दिन कैदियों में अलग तरह का उत्साह देखने को मिलता है। भले ही उनके चेहरों पर आम दिनों में परिवार की याद और भविष्य की सोच की रेखाएं दिखती हों, लेकिन इस दिन चेहरे में रौनक दिखती है। वे कहते हैं कि  हम एक परिवार हैं और परिवार के साथ खुशियां बांटना किसे अच्छा नहीं लगता।   


(इस 'जेल यात्रा' के दौरान सहयोग के लिए सहकर्मी कंचन अरोड़ा जी का धन्यवाद।)  

Tuesday, January 24, 2012

यहां भी है रोचकता


हम में से कई साथी इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि विज्ञान, विषय के तौर पर थोड़ा कम रोचक है। इसमें साहित्य या अन्य कला संबंधी विषयों की तरह कथा-कहानियों और बांध कर रखने वाले रोचक तत्वों की कमी है। लेकिन नहीं। असल में विज्ञान भी उतना ही रोचक है, जितना कि कला। दरअसल मूल समस्या हमारे पढऩे के तरीके में है। यदि हम विज्ञान और उससे जुड़ी खोजों की कहानियों को पढ़ें, तो यकीन मानिए ये आपको कला से भी ज्यादा रोमांचित करती हैं। हममें से कई साथियों को पहली बार इस बात पर हंसी आई होगी कि न्यूटन को गुरुत्वाकर्षण बल का एहसास सिर पर फल के गिरने से हुआ या यह कि आर्किमिडीज ने स्नान के समय जब खुद को पानी में हल्का महसूस किया, तो अपनी इस खोज पर वे बिना कपड़ों के ही स्नानघर से 'यूरेका यूरेका' चिल्लाते हुए दौड़ पड़े थे। हाल ही एक अध्ययन रिपोर्ट ने भी देश में विज्ञान की पढ़ाई और उसके तरीकों पर सवालिया निशान लगाया है, जिसके बाद इसे रोचकता से पढ़ाने और शिक्षा प्रणाली में बदलाव की वकालत की जा रही है। विज्ञान में रोचकता और बांध कर रखने वाली इसी कड़ी की खोज में भटकते हुए मैं एक वेब साइट पर पहुंचा। साइट का नाम है- 'टुडे इन साइंस हिस्ट्री'

यह साइट अपने नाम के अनुरूप विज्ञान जगत के इतिहास की तिथिवार कहानियां सुनाती है। यदि आप पिछली किसी तिथि पर हुई खोजों, विज्ञान जगत में जन्म और मृत्यु जैसी जानकारी लेना चाहें, तो कैलेंडर में फेरबदल कर सकते हैं। साइट के बाईं ओर मेन्यू में साइंस कोट्स का ऑप्शन है, जहां साइंटिस्ट्स के कोटेशंस ढूंढे जा सकते हैं। साइंस स्टोरीज और कैमेस्ट्री स्टोरीज सेक्शन में आविष्कारों की रोचक कहानियों को पढऩे का मौका मिलता है। आशा है, विज्ञान को रोचक नहीं मानने वाले साथियों को यहां कुछ रोचक तथ्य मिल जाएंगे।


साइट का पता है-

राजस्थान पत्रिका के एजुकेशन सप्लीमेंट ' मी नेक्स्ट ' में दिनांक -22 जनवरी 2012  को प्रकाशित 

यादें याद आती हैं...

समय जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, अपने पीछे यादें छोड़ जाता है। ये यादें कभी शिकायत, कभी नगमें तो कभी बातों के रूप में सामने आती हैं। और बात जब नगमों, बातों, शिकवों और वादों की हो, तो बरबस ही ध्यान उन रेडियो कार्यक्रमों पर चला जाता है, जिसने हमें अपनों से इसे साझा करने का मंच दिया। आज भले ही रेडियो का स्वरूप बदल गया है और यह बहुत हद तक एफएम चैनलों पर गीतों और विज्ञापनों तक सिमट गया है, लेकिन इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि पहले-पहल रेडियो ने ही हमें खबरों से लेकर मनोरंजन और दूर किसी अपने से यादों और बातों को साझा करना सिखाया। रेडियो से संबंधित इन्हीं यादों, बातों और गिले-शिकवों को साझा करने को कुछ रेडियोकर्मियों ने नाम दिया है- 'रेडियोनामा'।

इस ब्लॉग ने अपने साथ एक पंच लाइन जोड़ रखी है 'बातें रेडियो की... यादें आपकी', जो अपने आप में इस ब्लॉग पर उपलब्ध लेखों की बानगी पेश करता है। यह ब्लॉग इस मायने में मजेदार है कि यहां रेडियो से जुड़े कई जानी-मानी आवाजों को पढऩे का मौका मिलता है। यहां रेडियो स्टूडियो के  कई अनछुए पहलुओं को शब्दों में इस तरह पिरोया गया है कि क्षणभर के लिए ऐसा एहसास होता है मानों हम वहीं उनके साथ रेडियो स्टूडियो में मौजूद हों। एक ऐसे ही याद को साझा करते हुए एक रेडियोकर्मी लिखते हैं कि जब जगजीत सिंह की मृत्यु की खबर आई तो उनकी आंखों में आंसू थे, बावजूद इसके उन्हें यह खबर समाचारी लहजे में श्रोताओं तक पहुंचानी थी।

बहरहाल, यह ब्लॉग हमें भी रेडियो से जुड़ी अपनी यादें साझा करने का मौका देता है। शर्त बस इतनी है कि हम अपनी बात हिंदी में कहें। यहां हमें रेडियो जगत की जानी-मानी हस्तियों के साक्षात्कार को पढऩे और रेडियो जगत की बहसों से रूबरू होने का मौका मिलता है।


ब्लॉग का पता है-

राजस्थान पत्रिका के एजुकेशन सप्लीमेंट ' मी नेक्स्ट ' में दिनांक -15 जनवरी 2012  को प्रकाशित 

Wednesday, January 11, 2012

ऑनलाइन रीडिंग जोन

न्यू ईयर सेलिब्रेशन खत्म हो चुका है। नई योजनाओं, नए रेजोल्यूशंस, नए सपनों और नई अपेक्षाओं के साथ नए साल की शुरुआत हो चुकी है। हमारे कॉलेज गोइंग साथियों की क्लासेज भी शुरू हो चुकी हैं। यानि अब मस्ती वाले माहौल और दोस्तों से दूर किताबों से दोस्ती करने का समय आ गया है। बात जब दोस्ती की हो रही है, तो यह भी सच्चाई है कि किताबों से बेहतर हमारा कोई दोस्त नहीं होता। एक सच यह भी है कि हर समय कोर्स की किताबों में लगे रहना कभी-कभी बोर कर जाता है। ऐसे में लिट्रेचर की किताबें पढऩा एक बेहतर विकल्प हो सकता है। लिट्रेचर की किताबें न सिर्फ हमारा मनोरंजन करती हैं, बल्कि यह हमें जिंदगी को नए तरीके से देखने का नजरीया भी देती हैं। इंटरनेट की दुनिया में ऐसे कई वेबसाइट्स हैं, जो हमें ऑनलाइन रीडिंग जोन उपलब्ध कराते हैं। एक ऐसा ही साइट है 'रीड प्रिंट'।

इस साइट पर इंग्लिश लिट्रेचर में एसेज, फिक्शन, नॉन-फिक्शन, प्ले, पोएट्री और शॉर्ट स्टोरीज सेक्शंस की कई नई और क्लासिकल किताबें उपलब्ध हैं। रुचि के अनुसार किताबों को ढूंढने के लिए यहां इन सेक्शंस के अलावा फेवरिट ऑथर्स और होमपेज पर नीचे की ओर एक बुक गैलेरी के अलावा रीडर्स के रुझान के आधार पर टॉप फाइव बुक्स और ऑथर्स सरीखे लिस्ट भी दिए गए हैं। बुक सलेक्शन कर बुक के इमेज या नाम पर क्लिक करते ही हमें रीड ऑनलाइन, बाय, राइट ए रिव्यू जैसे ऑप्शंस दिए जाते हैं। यहां से रीड ऑनलाइन के ऑप्शन पर क्लिक करते ही हमारे सामने सेलेक्टेड बुक के डिफरेंट चैपटर्स की लिस्ट आ जाती है। यहां से चैप्टर सलेक्ट कर उस चैप्टर के कंटेट को पढ़ा जा सकता है।

होमपेज पर ऑपशन्स की बात करें तो यहां ऑनलाइन बुक्स का सेक्शन है, जो बुक सेलेक्शन में मदद कर सकता है। फाइंड बुक्स में हम की-वर्ड टाइप कर बुक ढूंढ सकते हैं। एक और मजेदार ऑप्शन ब्राउज कोट्स हैं, जहां ऑथर्स या सब्जेक्ट्स के अनुसार फेमस कोटेशन्स को ढूंढा और पढ़ा जा सकता है। 
वेबसाइट का पता है-   
www.readprint.com
राजस्थान पत्रिका के एजुकेशन सप्लीमेंट ' मी नेक्स्ट ' में दिनांक - 08 जनवरी 2012  को प्रकाशित 

Saturday, January 7, 2012

लेट्स रॉक दिस सीजन

र्दी का मौसम, फेस्टिव सीजन की उमंग और नए साल का शुभारंभ।  यानि गाने-बजाने और झूमने के लिए एकदम परफेक्ट टाइमिंग। दोस्तों के साथ न्यू ईयर पार्टी और खूब सारी मस्ती। नए साल का यह माहौल ही रेजोल्यूशंस और नई योजनाएं बनाने के लिए रोमांचित करता है। ऐसे में क्यों न इस बार नए साल में कुछ ऐसा सीखा जाए, जो रिदमिक और क्रिएटिव तो हो ही साथ ही फुर्सत के पलों में कुछ सुकून भी दे जाए। 'गिटार' !  बताने की जरूरत नहीं कि इस शब्द के उच्चारण मात्र से ही मन के तार झनझना उठते हैं। हम चाहे कितने भी तनाव में क्यों न हों, झनझनाते तारों की सरगम हमें सुकून दे जाती है। यदि यह सब इतना सुकून देने वाला है, तो क्यों न नए साल में कुछ समय गिटार और म्यूजिक को भी दिया जाए। यह न सिर्फ हमारी क्रिएटिविटी को बढ़ाने में सहायक है, बल्कि यदि इसमें महारत हासिल की जाए, तो हम इसे बतौर प्रोफेशन भी अपना सकते हैं। म्यूजिक इंडस्ट्री में एक अच्छे गिटारिस्ट को हमेशा सराहा जाता है। इसके अलावा कुछ साथी मिलकर रॉक बैंड का निर्माण कर लाइव शोज और परफॉर्मेन्स भी दे सकते हैं।

मारा आज का वेबसाइट 'जैम प्ले' आपको घर बैठे गिटार की टे्रनिंग देता है। यह साइट बिगिनर और पहले से गिटार बजा रहे दोनों तरह के साथियों के लिए लाभदायक है। वेबसाइट पर लेसंस, लाइव परफॉर्मेन्स, टीचर्स आदि के सेक्शंस बने हुए हैं। लेफ्ट और राइट साइड में गिटार, बिगिनर, जॉनर और सांग लेसंंस के ऑप्शंस भी एवेलबल हैं। संबंधित ऑप्शन पर क्लिक करते ही वीडियो की मदद से हमारी ट्रेनिंग शुरू हो जाती है। ध्यान रहे इसके लिए आपके ब्राउजर का फ्लैशप्लेयर अपडेटेड हो, ताकि वीडियो आसानी से प्ले हो जाए। साइट पर 'लेसंस' सेक्शन के अंदर बेसिक, स्टाइल एंड जॉनर, स्किल बिल्डिंग जैसे  कई ऑप्शन दिए गए हैं, जहां से आप इलेक्ट्रिक और एकॉस्टिक गिटार के साथ ही ब्लूज, मेटल, रॉक, क्लासिकल, जैज आदि जॉनर का चयन कर सकते हैं। लेट्स 

वेबसाइट का पता है-  www.jamplay.com

राजस्थान पत्रिका के एजुकेशन सप्लीमेंट ' मी नेक्स्ट ' में दिनांक - 01 जनवरी 2012  को प्रकाशित